![]() |
MasterSahab© |
यूँ ट्रेन की पटरियों पे चलते हुए एक अजीब दास्ताँ.....
सुरु कैसे करू,तुम से मिलु या फिर आज बहाना कर दू|
यूँ तो तुमसे बहुत कुछ कहना था|पर अब कहना भी क्या,जब
तुम हो ही नहीं की मेरी ख़ामोशी सुन लो|
वो आखिरी मुलाकात और तुम्हारे जनाजे के निचे मेरा हाथ|
सोचता था ,की अपनी ही साँसे तमको दे दू|
आखिरी बार ही सही तुम्हे अपना कह दू|
मेरी लाल आंखे जो ऐसा लग रहा था कितने जन्मो से सोई नहीं,
थी वो अश्को से भरी भरी ,और तुम काँधे पे मेरे रख कर सर सोई थे|
न मेरे लब कुछ कहना चाहते थे न तुम्हारे कह सकते थे|
वो उदासी का मौसम था,न तु मेरा था न मै तेरा था|
यूँ तो हर कदम तेरे साथ ही चला था मै,हर साँस पे तेरी आहटें सुनता था मै|
पर न आज वो अदावतें हैं न तेरा तगाफुल न ही मेरा तुझे मानाने की हसरतें|
सबक कुछ था तुझमे बस बेवफाई न थी|पर आज..............................
हर कोई रोया तेरे जनाज़े पे ,पर लब पे मेरे तुझसे जुदाई होने की दुहाई न थी|
Copyright©:MasterSahab©
No comments:
Post a Comment